Monday, May 26, 2014

कॉपीराइट @ सुनील कुमार सलैड़ा २१.५.१५

"उमीदों की दुनिया कहीं छुटती सी है,
वफाओं के तूफान आजकल आते ही नहीं,

कैसी मतलब परस्ती फैली है इन हवाओं में यारो,
ईमान की बलि देते हैं ज़लज़ले आज इन नगरों में,

दवा देने वाले ज़हर की तलाश में रहते है हरदम यहाँ,
कोई हमदर्दी की संजीवनी पिलाये तो जी जायें हम भी यहाँ यारो,

वरना डूब गयी है फिरका परस्त सिपेसिलारों के आगे हस्ती अपनी,
हम उभरें तो किसके सहारे अब यहाँ हर एक की शक्ल में दीखता है हमको कत्लो गैरत का सामान यारो......."

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