Thursday, December 11, 2014

फिलिस्तीनी कवि ख़ालिद जुमा की कविता

ओ गाज़ा के शैतान बच्चो
तुम जो मेरी खिड़की के निचे
लगातार चीख-चीखकर
करते थे मुझे परेशान।

तुम जो भर देते थे
पूरी सुबह को
अपने कोलाहल
और गड़बड़ी से।

तुम जो तोड़ देते थे
मेरा फूलदान
और चुरा लेते थे
मेरी बाल्कनी से एकलौता फूल।

वापिस आ जाओ।

और जितना चाहो चिल्लाओ
और तोड़ डालो
सारे फूलदान,
चुरा लो सारे फूल।

वापिस आओ..........!
बस वापिस आ जाओ।
(अनुवाद : विमल फिलिप)

उद्धृत जनमत सितम्बर २०१४ पृष्ठ २१

कितनी मार्मिक, कितनी संवेदनात्मक कविता लिखी है खालिद जुमा ने। फिलिस्तीन पर इजराइल के हमलों से उन्होंने जो खोया है उसका सशक्त, सजीव व करुणामय वर्णन उन्होंने अपनी कविता में प्रस्तुत कर दिया....सदियों से यही होता आया है ताकतवर कमज़ोर को दबाता आया है....पर ताकतवर इतना वीभत्स हो जाता है के अपनी ताकत के मद में वो इंसानियत की नस्ल को ही मिटाने को तैयार हो जाता है यह कहाँ से सही है......? वो मुर्ख इतना भी नहीं जनता के इंसान ही नहीं रहेंगे तो वो राज़ किस पर करेगा अपनी खुद की ताकत पर या अपने पैसे पर या अपने खुद के गरूर पर.....? फिर किस पर वो अपनी मनमानी चलाएगा उन निरहि, बेज़ुबान मशीनों पर......इस बर्बर समाज में ऐसे कैसे समता आएगी यह सबसे बड़ा प्रश्न इस समय उठ खड़ा हुआ है......
सभी को इस पर गहन विचार विमर्श करके कुछ तथ्यात्मक निष्कर्ष निकालने पड़ेंगे तभी कुछ बचेगा अन्यथा बारूद के इस खेल में सब नष्ट होने के कगार पर खड़ा है.....?
@ सुनील

Monday, May 26, 2014

"लम्हे संभाले हमसे जाते नहीं तू महीनों संभलने की बात न कर,
अफसाने हमसे बनाये नहीं जाते तू इस पर हमको मजबूर न कर,

बदला हमसे अब जाता नहीं तू बदलने की हमसे बात न कर,
मेरा रिश्ता है सच्चाई का तुझसे आज मुझको तू बदलने की बात न कर,

दूर है चला गया तू अब इतना मुझसे के पास रहकर भी परायापन से है अब,
फिर भी अगर तू चाहता है मैं बदल जाऊं तो माफ़ करने जानेमन मैंने प्यार किया है तुझसे कोई...ज़मीर की सौदेबाज़ी हम नहीं करते......"

कॉपीराइट सुनील कुमार सलैड़ा २२.५.१४
"गुजरी हुई दास्ताँ को यादों की बलि न चढ़ाना यारो,
यह ऐसा तूफ़ान है जो शांति के घर का मेहमान है,

रुलाती है ज़ार ज़ार यह होटों पे मुस्कान लिए,
शिकवे भी न दिखा पाते हैं हम गैरों की सौगात लिए,

बस तड़पते हैं तुमको साथ लिए किसी और के आगोश में बदहवास से,
क्यूंकि रूह तो छोड़ आये थे तेरे सीने में कैद हम तो उसी मोड़ पर,

कर दिया हवाले यह मिटटी का जिस्म मेरा किसी अजनबी दिल फ़ेंक के आगे,
नसीब उसको तो हुआ एक फूल बाग़ से पर खुशबू तो हम तेरी सांसों में छोड़ आये,

यह तकदीर का करम था या क़त्ल मेरे अरमानों का था,
बस था यह दुनिया का मुझ पे करम या हल्का हुआ था बोझ मेरे घरवालों का,

जो भी हुआ था उस दिन वहां वो खेल बड़ा ही निराला था,
बस लटका दिया था सूली पे मेरे बिखरे हुए उन ख्वाबों को,

अब न सुकून है न है करार हमें तो बस अब है इंतज़ार,
के पड़ी रहेगी शय्या पर यह लाश मेरे अरमानों की,

है सदियों की यह रीत यहाँ बदला न यहाँ कुछ ख़ास है,
बेड़ियाँ थी कल भी मेरे पैरों में घर की चारदीवारी की आज भी बंधी हूँ मैं यहाँ बंधे मेरे हालातों से,

कहते हैं बदले हैं हालत मेरे बन गयी हूँ अब मैं सबला यहाँ,
कोई कुरेद के तो देखे ज़ख्म मेरे मैं आज भी मरती हूँ मैं कल भी मरती थी बस फरक है अब मैं मरती हूँ मरे हुए जज्बातों से......"

कॉपीराइट @ सुनील कुमार सलैड़ा २२.५.१४
कॉपीराइट @ सुनील कुमार सलैड़ा २१.५.१५

"उमीदों की दुनिया कहीं छुटती सी है,
वफाओं के तूफान आजकल आते ही नहीं,

कैसी मतलब परस्ती फैली है इन हवाओं में यारो,
ईमान की बलि देते हैं ज़लज़ले आज इन नगरों में,

दवा देने वाले ज़हर की तलाश में रहते है हरदम यहाँ,
कोई हमदर्दी की संजीवनी पिलाये तो जी जायें हम भी यहाँ यारो,

वरना डूब गयी है फिरका परस्त सिपेसिलारों के आगे हस्ती अपनी,
हम उभरें तो किसके सहारे अब यहाँ हर एक की शक्ल में दीखता है हमको कत्लो गैरत का सामान यारो......."
"कोई मिलकर दगा देता हैं,
कोई बिछड़कर रुला देता है,
यह कैसा सफ़र है ज़िन्दगी का,
कोई हमसफ़र बनकर दगा देता है कोई राही उमर भर के लिए हमराही बन जाता है......"
कॉपीराइट @ सुनील कुमार सलैड़ा २४.५.१४

Tuesday, July 16, 2013

पिता को समर्पित



"दिए तुमने मुझको प्राण,
जग में हमेशा बढ़ना सिखाया,

मेहनत करता लड़ना सिखाया,
मेरे दु:ख में,

मेरे सु:ख में,
खडे़ हमेशा साथ में तुम,

जब भी टूटा मैं हिम्मत से अपनी,
तुमने हमेशा हिम्मत बढ़ाई,

खुद को तुमने दिए कष्ट,
पर मुझको आंच न आने दी,

मेरी सफलता में हमेशा मुझको आगे बढ़ाया,
मेरी असफलता में दी प्रेरणा पल पल तुमने,

मेरे पिता ने हमेशा मुझको पल पल अपने साथ चलाया..."
© सुनील कुमार सलैडा 16/062013