Monday, May 26, 2014

"गुजरी हुई दास्ताँ को यादों की बलि न चढ़ाना यारो,
यह ऐसा तूफ़ान है जो शांति के घर का मेहमान है,

रुलाती है ज़ार ज़ार यह होटों पे मुस्कान लिए,
शिकवे भी न दिखा पाते हैं हम गैरों की सौगात लिए,

बस तड़पते हैं तुमको साथ लिए किसी और के आगोश में बदहवास से,
क्यूंकि रूह तो छोड़ आये थे तेरे सीने में कैद हम तो उसी मोड़ पर,

कर दिया हवाले यह मिटटी का जिस्म मेरा किसी अजनबी दिल फ़ेंक के आगे,
नसीब उसको तो हुआ एक फूल बाग़ से पर खुशबू तो हम तेरी सांसों में छोड़ आये,

यह तकदीर का करम था या क़त्ल मेरे अरमानों का था,
बस था यह दुनिया का मुझ पे करम या हल्का हुआ था बोझ मेरे घरवालों का,

जो भी हुआ था उस दिन वहां वो खेल बड़ा ही निराला था,
बस लटका दिया था सूली पे मेरे बिखरे हुए उन ख्वाबों को,

अब न सुकून है न है करार हमें तो बस अब है इंतज़ार,
के पड़ी रहेगी शय्या पर यह लाश मेरे अरमानों की,

है सदियों की यह रीत यहाँ बदला न यहाँ कुछ ख़ास है,
बेड़ियाँ थी कल भी मेरे पैरों में घर की चारदीवारी की आज भी बंधी हूँ मैं यहाँ बंधे मेरे हालातों से,

कहते हैं बदले हैं हालत मेरे बन गयी हूँ अब मैं सबला यहाँ,
कोई कुरेद के तो देखे ज़ख्म मेरे मैं आज भी मरती हूँ मैं कल भी मरती थी बस फरक है अब मैं मरती हूँ मरे हुए जज्बातों से......"

कॉपीराइट @ सुनील कुमार सलैड़ा २२.५.१४

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